सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Thursday, February 4, 2010

आतिश के आनर सी वह लड़की

धूमिल की ये कविता सही मायने में महिला शक्ति को पहचानते हुए उन्हें प्रेरीर करता है कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़े

(कुमारी रोशन आरा बेगम के लिए - जिसने खुद ) को आततायी टैंक के नीचे बम के साथ डाल लिया )

"आजाद रहना हर वक्त एक नया अनुभव है "
वह प्यारी लड़की
अपने देश वासियों के खून में हमलावर दांतों की रपट पढ़ना
और उसके हिज्जे के खिलाफ कदम - - कदम
मौत के फैसले की ओर बढ़ना
छाती पर बांध कर बम
कम से कम, कहें जिन्हें कहना
यह अद्भुत साहस था बीसवीं
शताब्दी के आठवें दशक के तीसरे महीने में
लेकिन मै सिर्फ यह कहना चाहूँगा-
यह एक भोली जरूरत थी
औसतन गलत जिंदगी और
सही मौत चुनने का सवाल था
इसे अगर कविता की भाषा में कहूँ
यह जंगल के खिलाफ
जनतंत्र का मलाल था
बाबुल के देश का चुटिहल धड़कता हुआ
टुकड़ा था सीने में
और फैसले का वक्त था
एक हाथ जो नाजुक जरूर था
लेकिन बेहद सख्त था
आजाद अनुभवों की लकीर को
पूरब की ओर आगे तक
खींच रहा था
और लोग चकित थे देख कर कि एक नंगा गुलाब
किस तरह लोहे के पहाड़ को अपनी
मुट्ठी में भीच रहा था
ठीक इसी तरह होता है
जवानी जब फैसले लेती है
गुस्सा जब भी सही जनून से उभरता है
हम साहस के एक नए तेवर से परिचित होते है
तब हमें आग के लिए
दूसरा नाम नहीं खोजना पड़ता है
मुमकिन था वह आपने देशवासियों की गरीबी से
साढ़े तीन हाथ अलग हटकर
एक लड़की अपने प्रेमी का सिर छाती पर रखकर
सो रहती देह के अँधेरे में
अपनी समझ और अपने सपनों के बीच
मै उसे कुछ भी कहता सिर्फ कविता का दरवाजा
उसके लिए बंद रहता लेकिन क्या समय भी उसे
यूँ ही छोड़ देता ?
वह उसके चुम्बन के साथ
बारूद से जले हुए गोश्त का
एक सडा हुआ टुकड़ा जोड़ देता
और हवा में टांग देता उसके लिए
एक असंसदीय शब्द नीच
मुमकिन यह भी था थोड़ी सी मेंहदी और
एक अदद ओढ़नी का लोभ
लाल तिकोने के खिलाफ बोलता जेहाद
और अपने वैनिटी बैग में छोड़कर
बच्चों कि एक लम्बी फेहरिस्त
एक दिन चुपचाप कब्र में सो जाती
हवा कि इंकलाबी औलाद
लेकिन ऐसा हुआ नहीं
प्यारी भाभियों
नटखट बहिनों
सिंगार दान को छुट्टी दे दो
आइने से कहो कुछ देर अपना अकेलापन घूरता रहे
कंघी के झडे हुए बालों की याद में गुनगुनाने दो
रिबन को फ़ेंक दो बाडिज अलगनी पर
यह चोटी करने का वक्त नहीं और बाजार का
बालों को ऐंठकर जूड़ा बांध लो
और सब के सब मेरे पास आओ
देखो, मै एक नयी और तजा खबर के साथ
घर कि दहलीज पर खड़ा हूँ
ओह ! जैसा मैनें पहले कहा है -
बीस सेवों कि मिठास से भरा हुआ योवन
जब भी फटता है तो सिर्फ टैंक टूटता है
बल्कि खून के छींटे जहाँ जहाँ पड़ते है
बंजर और परती पर आजादी के कल्ले फूटते है
और प्यारी लड़की !
कल तू जहाँ आतिश के अनार कि तरह फूट कर
बिखर गयी है ठीक वहीँ से हम
आजादी की वर्ष गांठ का जश्न शुरू करते है

No comments:

Post a Comment