सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Tuesday, January 12, 2010

दूसरे प्रजातंत्र की तलाश में धूमिल

जब हम धूमिल की बात करते है तो एक ऐसे आदमी का चेहरा सामने आता है जो समाज की गलत नीतियों के खिलाफ अकेले लड़ जाने की ताकत लिया हुआ हो। जो एक आम आदमी के साथ खड़ा होकर उसकी लडाई अपने तरीके से लड़ता है।
इस सारी लड़ाई को अपने सही मुकाम तक पहुचाने के लिए ललकारते है। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि इतिहास के तमाम महत्वपूर्ण फैसले अब तक न संसद और न विधान सभावों में हुए हैं और न आगे होंगे - इसलिए वे यहाँ बहुत साफ है -


हे भाई है !
अगर चाहते हो
कि हवा का रुख बदले
तो एक कम करो -
हे भाई हे !!
संसद जाम करने से बेहतर है-
सड़क जाम करो ।

और हवा का रुख बदलना धूमिल के यहाँ इसलिए भी जरुरी है कि उन्हें अपनी आशाओं, आशंकाओं, रचनाओं और सपनों के लिए एक दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है -

मुझे अपनी कविताओं के लिए
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है
(नक्सलबाड़ी)

और धूमिल के यहाँ दूसरे प्रजातंत्र की तलाश तब पूरी होगी

जब दूध के पौधे झर रहे हो सफेद फूल
निः शब्द पीते बच्चे की जुबान पर
जब रोटी खायी जा रही हो चौक में
गोश्त के साथ
जब खटकर खाने की खुशी
परिवार और भाई चारे में
बदल रही हो
(कल सुनना मुझे )

धूमिल इसके लिए सचेत और क्रियाशिल भी दिखाए देते है। उन्हें अपनी माटी की उर्वरता का पूरा भरोसा और विश्वास भी है। इसलिए उनकी सारे प्रयत्न अपने भीतर शक्ति को लेकर संचालित है -

और दौड़ता हुआ खेतों की ओर गया।
जहाँ कतार की कतार
अनाज के अंखुए फूट रहे थे ।

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