सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Tuesday, April 6, 2021

खेवली

वहाँ  जंगल है  जनतंत्र

भाषा और गूँगेपन के बीच कोई

दूरी नहीं है।

एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।

सोच में डूबे हुए चेहरों और

वहां दरकी हुई ज़मीन में

कोई फ़र्क नहीं हैं।

 

वहाँ कोई सपना नहीं है।  भेड़िये का डर।

बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।

खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।

वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट

और ईमानदारी की तरह असफल है।

 

हायइसके बाद

करम जले भाइयों के लिए जीने का कौन-सा उपाय

शेष रह जाता हैयदि भूख पहले प्रदर्शन हो और बाद में

दर्शन बन जाय।

और अब तो ऐसा वक्त  गया है कि सच को भी सबूत के बिना

बचा पाना मुश्किल है।

 

 


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