सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Tuesday, April 17, 2012

धूमिल.....


सुदामा पाण्डेय
Sudama pandey dhoomil.jpg

जन्म: 09 नवंबर 1936
निधन: 10 फरवरी 1975
उपनामधूमिल
जन्म स्थानखेवली, जिला वाराणसी, उत्तरप्रदेश
कुछ प्रमुख
कृतियाँ
संसद से सड़क तक (1972), कल सुनना मुझे, सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (1983)
विविधकल सुनना मुझे काव्य संग्रह के लिये 1979 का साहित्य अकादमी पुरस्कार
जीवनीधूमिल / परिचय




Dhoomil's poem Patkatha: Excerpts...Recited by Irfan

This is an audio capture of a video recording. Performed at India International Centre, New Delhi, Bharathidasan Institute of Management, Trichy

धूमिल की कुछ कविताओं का संग्रह कविता कोष पे उपलब्ध है.




















Friday, December 2, 2011

एक शाम धूमिल के नाम


९ नवम्बर को धूमिल के गाँव पे हर साल की तरह इस बार भी गोष्ठी का आयोजन किया गया. और मेरा इस बार भी खेवली जाना नहीं हुआ. प्रवीन यादव जी को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने मुझे मेल करके सूचित किया कि उनके पास धूमिल जी के जन्मदिन के कुछ फोटोग्राफ है और उन्होंने सारे फोटो मेल भी किये. ब्लॉग लिखने में और अपडेट करने में बहुत देर हुआ इसके लिए बहुत खेद है.

- ९ नवम्बर २०११ - एक शाम धूमिल के नाम

खेवली आज भी ९ नवम्बर को धूमिलमय हो जाती है
आप महसूस कर सकते है उनकी यादों को हर जर्रे में

यह ध्यान
रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर ।




कल वक़्त रुका कुछ बात हुई, आँखों से भी बरसात हुई
अनहद रोया फिर देखा सपनों में तुमसे बात हुई
(कन्हैया पाण्डेय: धूमिल के छोटे भाई )






चहरे की झुर्रियों में देख सकते हो तो देखो
एक तस्बीर जो धूमिल नहीं होती
नज़र पढने का हुनर उन्हें बहोत आता था
जिनकी तस्बीर नज़र से ओझल नहीं होती
(घिशन यादव: धूमिल के मित्र )


Thursday, November 10, 2011

धूमिल के गांव में धूमिल की बातें.............


जनकवि सुदामा पांडेय धूमिल की 75वीं जयंती बुधवार को उनके गांव खेवली में धूमधाम से मनायी गई। इस अवसर पर आयोजित गोष्ठी में धूमिल की स्मृतियों को सहेजने के साथ ही उनकी जयंती को खेवली महोत्सव के रूप में मनाने के प्रस्ताव पर विद्वतजनों ने अपनी सहमति जताई। गोष्ठी में मुख्य अतिथि काशी विद्यापीठ हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष श्रद्धानंद ने कहा कि धूमिल जनकवि तो थे ही साथ ही उतने ही निर्भीक भी। धूमिल ने लिखा है कि अन्याय व शोषण के खिलाफ संघर्ष की तीव्रतम परिणति खूनी क्रांति हत्या व हिंसा की जमीन से ऊपर उठकर वर्तमान व्यवस्था के विध्वंस की घोषणा है। सत्य व तर्क की जमीन पर खड़े होकर यह घोषणा करने का साहस सिर्फ जनकवि धूमिल में ही था। विशिष्ट अतिथि डॉ. जयराम सिंह ने कहा कि अपने यहां जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है, जिसकी ज्ञान मदारी की भाषा है। अपने यहां संसद तेल की वह घानी है जिसमें आधा तेल व आधा पानी है। कवि व पत्रकार हिमांशु उपाध्याय ने कहा कि रचना के बल पर ऊंचाईयां हासिल करने वाले धूमिल के गांव खेवली में महोत्सव के बहाने याद करने की जरूरत है ताकि इस गांव को भी साहित्यिक व सांस्कृतिक हलचलों से जोड़ा जा सके। गोष्ठी में मौजूद विद्वतजनों के साथ ही ग्रामीणों ने भी इसका समर्थन किया। अध्यक्षता प्रो. अवधेश प्रधान ने की। डॉ. आरके सिंह, डॉ. कन्हैया पांडेय, प्रभाकर सिंह, विशाल विक्रम, डॉ. सदानंद आदि ने विचार व्यक्त किया। इससे पूर्व मुख्य अतिथि ने धूमिल के चित्र पर माल्यार्पण व दीप प्रज्ज्वलन कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। संगोष्ठी के पश्चात रचनाकार धूमिल की पत्‍‌नी श्रीमती मूरत देवी व उनकी चाची प्रभावती देवी समेत अन्य घर के सदस्यों से मिले। स्वागत धूमिल के पुत्र रत्‍‌नशंकर पांडेय, धन्यवाद ज्ञापन डॉ. कन्हैया पांडेय, आनंद रत्‍‌न पांडेय व संचालन देवी शंकर सिंह ने किया। बोले : धूमिल के गांव के साथी कभी धूमिल के साथ पल बिताने वाले घिस्सन यादव उनकी प्रसंशा करते नहीं अघाते। कहते हैं कि इस गांव के विकास के लिए फिलहाल सड़क की बहुत आवश्यकता है। जवाहर यादव ने कहा कि किसी के साथ अन्याय न हो। खेती परिश्रम से हो। भैया लाल मिश्र बोले इस गांव में खेवली महोत्सव का आयोजन हो व पारसनाथ पांडेय व लल्लन विंद ने भी गांव में विकास के साथ ही खेवली महोत्सव की मांग रखी। दिशा-2011 में नृत्य की धूम वाराणसी : पहडि़या स्थित हैप्पी मॉडल स्कूल का वार्षिक पुरस्कार वितरण एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम दिशा-2011 का आयोजन बुधवार को नागरी नाटक मंडली में किया गया। कार्यक्रम में विभिन्न लोकनृत्यों व फिल्मी डांस हिपहॉप की धूम रही। थीम डांस शीतला घाट पर हुई बम ब्लॉस्ट की घटना पर आधारित था जिसने लोगों को काफी प्रभावित किया। उद्घाटन मुख्य अतिथि एएफटीसी के प्रधानाचार्य डॉ. डीएन शर्मा एवं सुनंदा श्रीवास्तव ने किया। छात्र-छात्राओंको कक्षानुसार पुरस्कृत किया गया। अतिथि परिचय हेड मिस्ट्रेस विभा सहाय व धन्यवाद ज्ञापन प्रधानाचार्य आशा राय ने किया। मानिनि भगत, प्रबंध निदेशक मनु कुमार भगत, उप निदेशक नीता सिंह समेत छात्र व अभिभावक मौजूद थे।

Tuesday, November 8, 2011

सन्नाटे में कवि धूमिल की खेवली
हिन्दी कविता को अपनी धार देकर उसके समूचे कालखंड को इतिहास के पन्नों पर काबिज कराने वाले कवि धूमिल को पिछले कई वर्षो से उनके जन्म दिन(9 नवम्बर ) पर उनका गांव खेवली उनकी स्मृतियां सजोते हुए उन्हें अपनी सुमनांजलियां अर्पित करता है। ऐसा इस लिए भी कि धूमिल अपनी कविताओं के जरिए आकाश की बुलंदियां छूते हुए भी अपनी माटी का दर्द नहीं भूलते। अपने खेवली को नहीं भूलते। उन्हें संसद के साथ अपने खेतों की मेंड़, हदबंदी, नीम का पेड़, कौए की कर्कश आवाज, तीरथ पर निकली मां का चेहरा, बेटी की आंखें और जवान बछड़े की मौत भी याद रहती है। आजादी के बाद की कविता में देश, लोकतंत्र और आम आदमी की पीड़ा को संसद के गलियारों तक मुखर करने वाले धूमिल ने भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी पर किसी भविष्यद्रष्टा की तरह कलम चलाई। बारीकी से देखें तो धूमिल की कल की पंक्तियां आज का सच उकेरती मिलती हैं। संसद से सड़क तक लिखकर देश के सियासी माहौल में भूचाल मचा देने वाले कवि धूमिल के गांव में बरबस सी खामोशी है। छठे छमासे, या फिर उनकी सालगिरह पर गांव का सन्नाटा टूटता है। पूरे देश में धूमिल की पंक्तियों का इस्तेमाल करने वाले राजनीति के सूरमाओं या फिर सरकार को भी कभी खेवली की याद नहीं आती। खेवली में धूमिल का मकान जहां लालटेन की रोशनी में वे अपनी कविताओं के लिए शब्द रोपा करते वह घर जमींदोज हो चुका है। एक ऐसा घर जहां से धूमिल ने हिन्दी साहित्य का गागर भरा वह जीर्णशीर्ण और उपेक्षित दशा में पड़ा है। इस पर किसी की नजर नहीं है। साल में एकाध बार धूमिल को चाहने वाले खेवली पहुंचते हैं और उन्हें याद कर लौट आते हैं। कुछ समय सन्नाटे से बाहर रहने वाली खेवली फिर सन्नाटे में डूब जाती है। धूमिल का पूरा नाम सुदामा पांडेय था। उनकी पत्नी मूरत देवी आज भी खेवली में उनकी स्मृतियों के सहारे जिन्दगी का तनहां सफर काट रही हैं। उन्हें कुछ भी नहीं भूला। बढती उम्र के बावजूद उनके भीतर धूमिल से जुड़ी यादों का अमृत कोष भरा हुआ है। वे बताती हैं-उनके पति धूमिल रोज सुबह साइकिल से बनारस निकल जाते और देर शाम घर लौटते। किन्तु रात में सोने से पहले वे दिन भर का लेखा जोखा लेना नहीं भूलते। दिन भर क्या हुआ। कौन कहां गया। किस खेत की जुताई हुई और किस खेत में पानी पठाया गया। कितना बीज लगा, कितना चाहिए। घर में किसकी क्या जरूरत है और कितनी पूरी हुई। बकौल मूरत देवी धूमिल की यात्रा का प्रिय साधन साइकिल थी। साइकिल और कंधे पर झोला उसमें चंद कागज किताबें यही उनकी सम्पदा थी। एक बार वो बनारस से पैदल ही खेवली लौटे.उदास। बताया कि किसी ने शहर में उनकी साइकिल का ताला तोड़कर चुरा लिया। तब मैंने (मूरत देवी)उनसे कहा आप निराश न हों कल नई साइकिल ले लीजिएगा। मैने उनसे प्राप्त धन जो समय समय पर मुझे मिला करता उन्हें दे दिया। नई साइकिल से वे अगले दिन बनारस गए। उस दिन वह बहुत खुश थे। मूरत देवी के मुताबिक आर्थिक तंगी के कारण उन्हें कुछ समय कोलकाता में भी रहना पड़ा। बाद में आईटीआई में नौकरी कर ली। धूमिल के दो पुत्र हैं रत्नशंकर और आनंद शंकर। कवि धूमिल और उनकी पंक्तियां अब भी प्रासंगिक हैं तब, जब वे कहते हैं जनतंत्र की असली जंग के घर के जंग से शुरू होती है। या फिर एक आदमी रोटी बेलता है, दूसरा उसे खाता है। एक तीसरा आदमी भी है जो उसे न बेलता है न खाता है। मैं पूछता हूं वह तीसरा आदमी कौन है। मेरे देश की संसद मौन है। धूमिल अपनी कविताओं में दूसरे प्रजातंत्र तलाश करते। धूमिल की पंक्तियां-आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है.जिसे एक पहिया ढोता है।. या फिर न कोई प्रजा है न कोई तंत्र है यह आदमी का आदमी के खिलाफ षड़यंत्र है.। आज के दौर में भी बहुत कुछ सोचने को विवश करती हैं। -साथ में हरहुआ से कन्हैंया लाल पथिक।

Saturday, July 9, 2011

तुम तो पाषाण थे ..............


वंशी थी बांस की किन्तु मुखर हो गई श्वास से मेरे

उठते स्वर ये नहीं, जो न हम पुकारते
होता क्या मान छिद्र जो न हम दुलारते
तेरी आराधना तेरा ही भर थी
मेरी यदि कामना न आरती उतारती
तुम तो पाषाण थे किन्तु बने इश्वर विश्वास से मेरे
वंशी थी बांस की किन्तु मुखर हो गई श्वास से मेरे

स्वर के आलाप को मुझसे ही छिनकर
तुमने है ढल दिया जगती के बीन पर
कर्मो के नृत्य में पद-गति को साधकर
सद् गति के बंधन में मुझको ही बंधकर
हंस हंस परिहास कर, खेले उल्लास भर लास से मेरे
तुम तो पाषाण थे किन्तु बने इश्वर विश्वास से मेरे
वंशी थी बांस की किन्तु मुखर हो गई श्वास से मेरे

दे दिया पराग कण हंसते से फूल को
मेरी इस धरती की मुठ्ठी भर धुल को
देखा विश्वास को तुमने जब, बोल पर
धरती के अंक में लिखते निर्माण तुम नाश से मेरे
तुम तो पाषाण थे किन्तु बने इश्वर विश्वास से मेरे
वंशी थी बांस की किन्तु मुखर हो गई श्वास से मेरे

Tuesday, March 22, 2011

डूबता हुआ सूरज बहुत कुछ कहता है

डूबता हुआ सूरज क्या कहता है.....शायद बहुत कुछ या कुछ भी नहीं.....या कुछ यू कहे की जो आप सुनना चाहते है वही कहता है. आप भी कभी कोशिश कीजियेगा उसको सुनाने का, समझाने का और उससे बात करने का. अच्छा लगेगा ऐसा मेरा विस्वास है .मेरा अनुभव कुछ अलग था पहली बार शायद मैंने उसे इतना करीब महसूस किया. मुझे वो बहुत उदास लगा और पता नहीं क्यों न चाहते हुए भी मैंने उसे सुना उसे समझाने की एक कोशिश किया. उसका डूबना बिलकुल बेचैन कर देने वाला पल था. इससे पहले न जाने कितनी बार वो डूबा होगा लेकिन आज उसका डूबना कुछ अलग था......शायद बिल्कुल अलग था.........



कोशों दूर बैठा मैं डूबते सूरज को देखता रहा
जैसे कुछ कह रहा हो -
आज दिन भर जला है वो,
सारा जिस्म लाल हो गया है
पर क्या तुमने कभी सूरज के लाल जिस्म को देखा है?
कोशों दूर बैठा मैं डूबते सूरज के घायल जिस्म को देखता रहा
मानो कुछ कह रहा हो!

बस कुछ ही पल बाकी है,
हाँ अब उसके अंदर वो आग नहीं रही
मै उससे आँखे मिला सकता हूँ
मै उसके डूबती नब्जों के आवाज को सुन सकता हूँ
पंखुडियां बंद करते फूलों के बुदबुदाहट में,
मै सुन सकता हूँ उसकी आखरी आवाज को
पर क्या तुमने कभी बिखरते सूरज की आह सुनी है,
कोशों दूर बैठा डूबते सूरज की आह को मै सुनता रहा,
जैसे कुछ कह रहा हो

सूर्यास्त से थोड़ी देर पहले उसके चेहरे पे इक हंसी थी
क्योकि बहुत दूर बैठे वो भी मुझे देख रहा था,
बिल्कुल आपनी तरह, एकदम शांत, चुपचाप लोगों से अलग
पर क्या तुमने कभी धलते हुए आदमी और
डूबते हुए सूरज को देखा है ?
कोशों दूर बैठे हम दोनों इक दुसरे को सुनते रहे
हाँ मै उसे सुनता रहा क्योकि -
डूबता हुआ सूरज बहुत कुछ कहता है !!

कोशों दूर बैठा मैं डूबते सूरज को देखता रहा
जैसे कुछ कह रहा हो !!

Tuesday, November 9, 2010

धूमिल का खेवली



वहाँ न जंगल है न जनतंत्र
भाषा और गूँगेपन के बीच कोई
दूरी नहीं है।
एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहां दरकी हुई ज़मीन में
कोई फ़र्क नहीं हैं।

वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर।
बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।
खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।
वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
और ईमानदारी की तरह असफल है।

हाय! इसके बाद
करम जले भाइयों के लिए जीने का कौन-सा उपाय
शेष रह जाता है, यदि भूख पहले प्रदर्शन हो और बाद में
दर्शन बन जाय।
और अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिना
बचा पाना मुश्किल है


जी हाँ ये धूमिल का खेवली है, जहाँ न तो जंगल है न ही जनतंत्र और न ही किसी का डर. पूरी दुनिया से बेखबर अपनी ही रफ़्तार से दौड़ता हुआ एक गावं. जहाँ पे एक गूँगा आदमी भी अपने आप को उतना ही सक्षम पता है जितना की एक आम आदमी. एक बार एक गूंगे आदमी को देखकर धूमिल कहतें हैं कि "साले के पास जुबान नहीं है, लेकिन यह पूरे शरीर से बोल रहा है. अब मुझे लग रहा है कि वह थोड़ी देर में घुटनों से बोल पड़ेगा". धूमिल आगे लिखते है कि -

"जो छाया है, सिर्फ़ रात है
जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है
और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है"

आज धूमिल का जन्मदिन है और पूरा गावं अपने महानायक को अपनी श्रधांजलि दे रहा है. वरुण नदी के किनारे बसा एक गावं जो हिंदी साहित्य को कभी न भुलाने वाली अनेकों अमर कृतियाँ दी हैं. एक गावं जो संसद से सड़क तक का सफ़र तय करता है और गलत लोगों को एक कठगरे में खड़ा करती है. एक गावं, जिसमे रहते हुए धूमिल ने न जाने कितने पात्रो को हमेशा - हमेशा के लिए जीवित कर दिए, न जाने कितने मोचीराम ने लोगों को जीने का तर्क सिखाया है और न जाने कितने ही मेमन सिंह की पहचान करती है. हिंदुस्तान के नक्शे में अपने वजूद को तलाशता हुआ खेवली समय के साथ वहुत बदला.

खेवली में बातें बदली, विश्वास बदला, यहाँ तक कि संकल्पों के अर्थ बदले, दोस्ती - दुश्मनी कि जमीं बदली. दुआ सलामों कि जमीं पर आशीर्वचनों के गंतव्य बदले. रास्ते - पैड़े बदले, डांड - मेंड़ और पगडंडियाँ बदली, होली के रंग बदले, दीवाली के दीपों के ढंग बदले. त्योहार बंटे, व्यवहार बंटे और बंटे - बदले खेवली के लोंग. बैठकी बदली, बैठक करने वाले बदले. दरबार बदल, दरबारियों कि सेहत बदली, उनके ओहदे बदले और बदल गयी शतरंज कि पूरी विशात; अपने मोहरों के साथ. इतिहास के गर्त में समा गए वे लोग जिनके पेशाब से खेवली में कभी चिराग जलाते थे और जिनकी मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिलता था. अजेय दुर्गों में भग्नावशेष विधवा विलाप करते पसर गए, मर गए युवा संकल्पों के कितने ऐसे सपने जो अपने लोगों के सवालों पर देखे गए थे. भर गए वे घाव जो कभी 'हंसुआ यज्ञ' कि ज्वाला ने दिया था और जो 'लाल धोड़ा' कि खुरों के भीषण आधात से उपजे थे.

हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी ,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का

फिर खेवली में शुरू होता है एक तेजस्वी परिक्षण, रोटी के सवाल पर, रोजगार के सवाल पर, इज्जत के सवाल पर, इमां के सवाल पर, सम्मान के सवाल पर तथा खुद को जिन्दा रखने के सवाल पर. उन्ही सरे सवालों पर उन्होंने खेवली के लोगों के साथ हर एक - एक को आवाज दिया. वे कहते है -

"हमने हर एक को आवाज दी है
हर एक का दरवाजा खटखटाया है
मगर जिसकी पूंछ
उठाई उसको मादा पाया है "

यानी टूटते विस्वाश और मोहभंग कि वह स्थिति जहाँ आदमी निराश एवं अकेला महसूस करता है. अपने उन लोगों द्वारा जो संघर्ष के साथी और दुःख के भागीदार होने का दम भरते हैं. इसीलिए कविता धूमिल के यहाँ घेराव में बौखलाए आदमी का संक्षिप्त एकालाप बन जाती है.

सुदामा पाण्डेय से धूमिल तक का सफर जितना अद्भुत और आश्चर्यचकित लगता है वह उतना ही कठिन भी है. ठीक उतना ही जितना कि खेवली के एक छोटे से गावं से निकलकर हिंदी साहित्य ने आपनी एक अलग पहचान बनाना. और इस सफ़र में खेवली का बहुत बड़ा हाँथ है. आजादी का मोहभंग पहले उनके गावं से शुरु होती है और वो कहते है कि -
"चेहरा-चेहरा डर लगता है
घर बाहर अवसाद है
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है। "

ये मोहभंग खेवली से शुरु होकर हिंदुस्तान के हर शेत्र तक अपना असर छोड़ती है. धूमिल आगे लिखते है कि "सचमुच मजबूरी है / मगर जिन्दा होने के लिए / पालतू होना जरूरी है."
खेवली कि समस्या केवल खेवली कि ही नहीं बल्कि पुरे देश कि समस्या थी, और धूमिल इस बात को भली भाती जानते थे. शायद यही बात है कि धूमिल की कविताओं में खेवलीपन या यूँ कहे की गवईपन उभर कर सामने आती है.

लोहसाँय चालू होती है
एक एक कर आते हैं किसान
खेतिहर... मजूर
गाँव गिराँव से
सलाम-रमरम्मी के बाद
ठेलू फरगता है फाल
गड़सा, खुरपी, कुदाल
हँसी मजाक, बतकही चलती रहती है
इसी के दौरान
इधर उधर देखकर
धीरे से कहता है टकू बनिहार
...'हँसुये पर ताव जरी ठीक तरे देना
कि धार मुड़े नहीं आजकल
छिनार निहाई ने
लोहे को मनमाफिक हनने के लिए
हथोड़े से दोस्ती की है'

धूमिल ने पहले खेवली को जिया है और इसीलिए वे उनकी सभी समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ थे. क्योकि धूमिल मानते है कि एक सही कविता पहले एक सार्थक व्यक्तव्य होती है. लोगो के दर्द को समझने के लिए पहले उसको जीना पड़ता है,जिसको धूमिल ने जिया है. तभी तो किसी ने उन्हें गरीबों का मसीहा कहा तो किसी ने आम आदमी की लड़ाई लड़ने के लिए कठगरे में खड़ा एक कवी कहा. कशी का अस्सी में काशीनाथ सिंह ने लिखा है की धूमिल के जाने के बाद ऐसा लगा जैसे घर से बेटी चली गयी हो. लोगो के दर्द को धूमिल ने कविता के माध्यम से कुछ इस तरह लिखा है -

रोटी खरी है बीच में
पर किनारे पर कच्ची है
सब्ज़ी में नमक ज़्यादा है
पता नहीं होटल के मालिक का पसीना है या
'महराज' के आँसू
(इस बार भी देवारी में उसे घर जाने की
छुट्टी नहीं मिली)


जब हम धूमिल की कविताओं को पढ़ते है तो ऐसा लगता है कि वह एक आम आदमी कि बात है, एक आम आदमी कि लडाई है और उस सबसे बढाकर कही न कही वह एक आम आदमी का दर्द है . उनकी कविता कभी हमारी एकालाप को आपनी आवाज देता है तो कभी एक नई शब्दों का सृजन करतें है जिससे हम अपनी बातों को रख सकते है . कभी हमारे अपनों के बीच कि दीवार को गिराने कि लिए अपनेपन कि एक नयी परिभाषा देती है तो कभी शब्दों कि भुन्नाशी ताले को खोलने कि लिए एक नई तरकीब देता है.


कोई पहाड़
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है .
और कोई आँख
छोटी नहीं है समुद्र से
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है -
जो कभी
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है

१० फरवरी १९७५ को ब्रेन ट्यूमर से लड़ता हुआ एक महान कवी अपनी जिंदगी की लड़ाई हर गया.आज धूमिल हमारे बीच नहीं है मगर उनकी सार्थकता हमेशा बनी रहेगी. आज भी वरुण की कलकलाहत में हम धूमिल को महशूस कर सकतें है, आज भी धूमिल जिन्दा है खेवली के विचारों में,लोगों के सुख में, दुःख में और खेवली के हवाओं में. जिंदगी के अंतिम पड़ाव पे भी धूमिल ने कविता का और अपने गावं खेवली का साथ नहीं छोड़ा, चलते - चलते आप लोगों के लिए धूमिल की अंतिम कविता पेश करता हूँ -

"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना की यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग"

लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.

धन्यवाद..................