सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Tuesday, November 9, 2010

धूमिल का खेवली



वहाँ न जंगल है न जनतंत्र
भाषा और गूँगेपन के बीच कोई
दूरी नहीं है।
एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहां दरकी हुई ज़मीन में
कोई फ़र्क नहीं हैं।

वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर।
बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।
खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।
वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
और ईमानदारी की तरह असफल है।

हाय! इसके बाद
करम जले भाइयों के लिए जीने का कौन-सा उपाय
शेष रह जाता है, यदि भूख पहले प्रदर्शन हो और बाद में
दर्शन बन जाय।
और अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिना
बचा पाना मुश्किल है


जी हाँ ये धूमिल का खेवली है, जहाँ न तो जंगल है न ही जनतंत्र और न ही किसी का डर. पूरी दुनिया से बेखबर अपनी ही रफ़्तार से दौड़ता हुआ एक गावं. जहाँ पे एक गूँगा आदमी भी अपने आप को उतना ही सक्षम पता है जितना की एक आम आदमी. एक बार एक गूंगे आदमी को देखकर धूमिल कहतें हैं कि "साले के पास जुबान नहीं है, लेकिन यह पूरे शरीर से बोल रहा है. अब मुझे लग रहा है कि वह थोड़ी देर में घुटनों से बोल पड़ेगा". धूमिल आगे लिखते है कि -

"जो छाया है, सिर्फ़ रात है
जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है
और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है"

आज धूमिल का जन्मदिन है और पूरा गावं अपने महानायक को अपनी श्रधांजलि दे रहा है. वरुण नदी के किनारे बसा एक गावं जो हिंदी साहित्य को कभी न भुलाने वाली अनेकों अमर कृतियाँ दी हैं. एक गावं जो संसद से सड़क तक का सफ़र तय करता है और गलत लोगों को एक कठगरे में खड़ा करती है. एक गावं, जिसमे रहते हुए धूमिल ने न जाने कितने पात्रो को हमेशा - हमेशा के लिए जीवित कर दिए, न जाने कितने मोचीराम ने लोगों को जीने का तर्क सिखाया है और न जाने कितने ही मेमन सिंह की पहचान करती है. हिंदुस्तान के नक्शे में अपने वजूद को तलाशता हुआ खेवली समय के साथ वहुत बदला.

खेवली में बातें बदली, विश्वास बदला, यहाँ तक कि संकल्पों के अर्थ बदले, दोस्ती - दुश्मनी कि जमीं बदली. दुआ सलामों कि जमीं पर आशीर्वचनों के गंतव्य बदले. रास्ते - पैड़े बदले, डांड - मेंड़ और पगडंडियाँ बदली, होली के रंग बदले, दीवाली के दीपों के ढंग बदले. त्योहार बंटे, व्यवहार बंटे और बंटे - बदले खेवली के लोंग. बैठकी बदली, बैठक करने वाले बदले. दरबार बदल, दरबारियों कि सेहत बदली, उनके ओहदे बदले और बदल गयी शतरंज कि पूरी विशात; अपने मोहरों के साथ. इतिहास के गर्त में समा गए वे लोग जिनके पेशाब से खेवली में कभी चिराग जलाते थे और जिनकी मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिलता था. अजेय दुर्गों में भग्नावशेष विधवा विलाप करते पसर गए, मर गए युवा संकल्पों के कितने ऐसे सपने जो अपने लोगों के सवालों पर देखे गए थे. भर गए वे घाव जो कभी 'हंसुआ यज्ञ' कि ज्वाला ने दिया था और जो 'लाल धोड़ा' कि खुरों के भीषण आधात से उपजे थे.

हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफरत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी ,रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का

फिर खेवली में शुरू होता है एक तेजस्वी परिक्षण, रोटी के सवाल पर, रोजगार के सवाल पर, इज्जत के सवाल पर, इमां के सवाल पर, सम्मान के सवाल पर तथा खुद को जिन्दा रखने के सवाल पर. उन्ही सरे सवालों पर उन्होंने खेवली के लोगों के साथ हर एक - एक को आवाज दिया. वे कहते है -

"हमने हर एक को आवाज दी है
हर एक का दरवाजा खटखटाया है
मगर जिसकी पूंछ
उठाई उसको मादा पाया है "

यानी टूटते विस्वाश और मोहभंग कि वह स्थिति जहाँ आदमी निराश एवं अकेला महसूस करता है. अपने उन लोगों द्वारा जो संघर्ष के साथी और दुःख के भागीदार होने का दम भरते हैं. इसीलिए कविता धूमिल के यहाँ घेराव में बौखलाए आदमी का संक्षिप्त एकालाप बन जाती है.

सुदामा पाण्डेय से धूमिल तक का सफर जितना अद्भुत और आश्चर्यचकित लगता है वह उतना ही कठिन भी है. ठीक उतना ही जितना कि खेवली के एक छोटे से गावं से निकलकर हिंदी साहित्य ने आपनी एक अलग पहचान बनाना. और इस सफ़र में खेवली का बहुत बड़ा हाँथ है. आजादी का मोहभंग पहले उनके गावं से शुरु होती है और वो कहते है कि -
"चेहरा-चेहरा डर लगता है
घर बाहर अवसाद है
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है। "

ये मोहभंग खेवली से शुरु होकर हिंदुस्तान के हर शेत्र तक अपना असर छोड़ती है. धूमिल आगे लिखते है कि "सचमुच मजबूरी है / मगर जिन्दा होने के लिए / पालतू होना जरूरी है."
खेवली कि समस्या केवल खेवली कि ही नहीं बल्कि पुरे देश कि समस्या थी, और धूमिल इस बात को भली भाती जानते थे. शायद यही बात है कि धूमिल की कविताओं में खेवलीपन या यूँ कहे की गवईपन उभर कर सामने आती है.

लोहसाँय चालू होती है
एक एक कर आते हैं किसान
खेतिहर... मजूर
गाँव गिराँव से
सलाम-रमरम्मी के बाद
ठेलू फरगता है फाल
गड़सा, खुरपी, कुदाल
हँसी मजाक, बतकही चलती रहती है
इसी के दौरान
इधर उधर देखकर
धीरे से कहता है टकू बनिहार
...'हँसुये पर ताव जरी ठीक तरे देना
कि धार मुड़े नहीं आजकल
छिनार निहाई ने
लोहे को मनमाफिक हनने के लिए
हथोड़े से दोस्ती की है'

धूमिल ने पहले खेवली को जिया है और इसीलिए वे उनकी सभी समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ थे. क्योकि धूमिल मानते है कि एक सही कविता पहले एक सार्थक व्यक्तव्य होती है. लोगो के दर्द को समझने के लिए पहले उसको जीना पड़ता है,जिसको धूमिल ने जिया है. तभी तो किसी ने उन्हें गरीबों का मसीहा कहा तो किसी ने आम आदमी की लड़ाई लड़ने के लिए कठगरे में खड़ा एक कवी कहा. कशी का अस्सी में काशीनाथ सिंह ने लिखा है की धूमिल के जाने के बाद ऐसा लगा जैसे घर से बेटी चली गयी हो. लोगो के दर्द को धूमिल ने कविता के माध्यम से कुछ इस तरह लिखा है -

रोटी खरी है बीच में
पर किनारे पर कच्ची है
सब्ज़ी में नमक ज़्यादा है
पता नहीं होटल के मालिक का पसीना है या
'महराज' के आँसू
(इस बार भी देवारी में उसे घर जाने की
छुट्टी नहीं मिली)


जब हम धूमिल की कविताओं को पढ़ते है तो ऐसा लगता है कि वह एक आम आदमी कि बात है, एक आम आदमी कि लडाई है और उस सबसे बढाकर कही न कही वह एक आम आदमी का दर्द है . उनकी कविता कभी हमारी एकालाप को आपनी आवाज देता है तो कभी एक नई शब्दों का सृजन करतें है जिससे हम अपनी बातों को रख सकते है . कभी हमारे अपनों के बीच कि दीवार को गिराने कि लिए अपनेपन कि एक नयी परिभाषा देती है तो कभी शब्दों कि भुन्नाशी ताले को खोलने कि लिए एक नई तरकीब देता है.


कोई पहाड़
संगीन की नोक से बड़ा नहीं है .
और कोई आँख
छोटी नहीं है समुद्र से
यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है -
जो कभी
हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है

१० फरवरी १९७५ को ब्रेन ट्यूमर से लड़ता हुआ एक महान कवी अपनी जिंदगी की लड़ाई हर गया.आज धूमिल हमारे बीच नहीं है मगर उनकी सार्थकता हमेशा बनी रहेगी. आज भी वरुण की कलकलाहत में हम धूमिल को महशूस कर सकतें है, आज भी धूमिल जिन्दा है खेवली के विचारों में,लोगों के सुख में, दुःख में और खेवली के हवाओं में. जिंदगी के अंतिम पड़ाव पे भी धूमिल ने कविता का और अपने गावं खेवली का साथ नहीं छोड़ा, चलते - चलते आप लोगों के लिए धूमिल की अंतिम कविता पेश करता हूँ -

"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना की यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग"

लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.

धन्यवाद..................




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