सुदामा पांडेय 'धूमिल'

सुदामा पांडेय 'धूमिल'

Wednesday, January 3, 2018

पटकथा (लम्बी रचना)

मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
चुनावही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तककम से कम बुरे कोचुनते हुये
उन्हें मलाल है, भय है
लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा

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