यह कविता धूमिल ने २३ जून १९६२ अपनी बेटी इंदु के स्मृति में लिखा था। अपनी बेटी के मृत्यु का समाचार सुनकर, व्याकुल पितामन अपनी व्यथा को शब्दों के माध्यम से बड़े ही मार्मिक ढंग से कह देता है।
जिंदगी एक खूंखार इच्छा है
जो अपने को खा जाती
और निरामिष होना
आदमी की पहली कमजोरी
क्योंकि हमें शांति से
जीना है।
हम हर पैबंद को
नीचे ही
ढंक देना चाहते है
सत्य की एक शर्त भी होती है।
मैं
इसी इच्छा
इसी कमजोरी
और इसी शर्त को जीता हुआ
मरी हुई लड़की का बाप हूँ
जिसकी किलकारियां
मेरी असंख्य अपराधी मुद्राओं पर
अंकित है
" जी लो ओ पिता
जी लो यह जिंदगी
यह शांति !
यह सत्य !!
जी लो यह प्रतिस्पर्धा !!
अपनी संतानों से "
और मै चुपचाप सुनाता हूँ
बीमार अँधेरे में
आवाज का इस तरह
सिसक सिसक रोना ........ ।
शताब्दियों की मौत का जश्न
मनाता हुआ
अर्धविक्षिप्त सूर्य
पीली डोरियों में बांधकर
नीली पतंग उड़ा रहा है।
घूमती हुई धरती पर
मैं किसी आस्थागत संकल्प का
ध्वस्त शिलालेख
जीवित हूँ :
लिपियों का अंधापन
भगोड़ी आत्माओं को
ढूढता है
रीते भटकाव में।
किन्तु मै किसी शब्द को
अर्थ नहीं दूंगा
सारी परिभाषाएं मेरा परिवेश है
उन्हें फिर भी
तोडूंगा नहीं
ओ मेरी बच्ची।
जिंदगी एक खूंखार इच्छा है
जो अपने को खा जाती
और निरामिष होना
आदमी की पहली कमजोरी
क्योंकि हमें शांति से
जीना है।
हम हर पैबंद को
नीचे ही
ढंक देना चाहते है
सत्य की एक शर्त भी होती है।
मैं
इसी इच्छा
इसी कमजोरी
और इसी शर्त को जीता हुआ
मरी हुई लड़की का बाप हूँ
जिसकी किलकारियां
मेरी असंख्य अपराधी मुद्राओं पर
अंकित है
" जी लो ओ पिता
जी लो यह जिंदगी
यह शांति !
यह सत्य !!
जी लो यह प्रतिस्पर्धा !!
अपनी संतानों से "
और मै चुपचाप सुनाता हूँ
बीमार अँधेरे में
आवाज का इस तरह
सिसक सिसक रोना ........ ।
शताब्दियों की मौत का जश्न
मनाता हुआ
अर्धविक्षिप्त सूर्य
पीली डोरियों में बांधकर
नीली पतंग उड़ा रहा है।
घूमती हुई धरती पर
मैं किसी आस्थागत संकल्प का
ध्वस्त शिलालेख
जीवित हूँ :
लिपियों का अंधापन
भगोड़ी आत्माओं को
ढूढता है
रीते भटकाव में।
किन्तु मै किसी शब्द को
अर्थ नहीं दूंगा
सारी परिभाषाएं मेरा परिवेश है
उन्हें फिर भी
तोडूंगा नहीं
ओ मेरी बच्ची।