आज धूमिल का पुण्यतिथि है. १० फरवरी १९७५ को किंग जॉर्ज हॉस्पिटल - लखनऊ में धूमिल ने हमेशा हमेशा के लिए साहित्य को अलविदा कह दिया. आज के दिन उनकी अंतिम कविता शेयर कर रहा हूँ. इस कविता को बिना कोई नाम दिए धूमिल चले गए और उनके चाहने वालो ने इस कविता को कभी "धूमिल की अन्तिम कविता" तो कभी "लोहे का स्वाद" जैसा शीर्षक दिया. बात फरवरी १९७५ के शुरूआती दिनों की है जब धूमिल ब्रेन कैंसर के असफल ऑपरेशन के बाद भयंकर पीड़ा से गुजर रहे थे.अपने छोटे भाई श्री कनैह्या पांडेय की इशारो से अपने पास बुलाया और अपनी अंतिम कविता उनसे लिखने को कहा. वो कहते थे "भाषा अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही है। कुछ हैं जो भाषा को खा रहे हैं।" धूमिल ने भाषा को उसकी जिम्मेदारी की जगह तैनात किया. अंदाजा नहीं लगाया जा सकता की उस भयंकर पीड़ा में किसी को कविता कैसे सूझ सकती है लेकिन धूमिल का अंदाज ही कुछ ऐसा था. वो कहते थे " कविता भाष़ा में आदमी होने की तमीज है।" और साथ ही साथ "कविता घेराव में किसी बौखलाये हुये आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।" आज पुण्यतिथि पे उनको नमन करते हुए उनकी अंतिम कविता आप सबके लिए -
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
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